कस्तियाँ समुंदर में सफ़र, अपना तय तो कर जाती हैं ,
कुछ मुसाफिरों को किनारा, तो कुछ को अंजानो से मिला जाती हैं ,
पर सफ़र के इस दौर में दिखा हर वो चेहरा, क्या याद रह जाता है ,
कइयों को अपना और कइयों के अपने तो हम बन जाते हैं ,
पर कोई एक चेहरा जो अपनेपन की दिला दे याद,
वो क्या हर मुसाफिर के मुकाम में आता है ?
उसका दीदार हो जाये बस इसी बात की कल्पना किया करते थे ,
आज ये आलम है की कल्पनाओ में भी उसका दीदार ही किया करते हैं ,
जो देख लूं उसे हो जायेंगे मेरे नैन तृप्त , इस बात पे विश्वास कैसे करुं ,
सवाल तो वही है आज तलाक जहाँ में, की कल्पना को अपनी आकार कैसे दूं |
ग़ौरतलब फरमाए ज़माना की दिल के मेल से बड़ी कोई मालकियत नहीं ,
दिल-ए -आरज़ू हो अगर पाने की निःस्वार्थ साथ , तो क़ायनात करे कोई हिमाक़त ऐसी गुंजाईश नहीं ,
कई बार पाने की परिभाषा समझते समझते हम किसी को गवां बैठते हैं ,
और कई दफा मिले हुए राही को ही तलाशते पूरी ज़िन्दगी निकाल देते हैं |
गुलाबों की हिफ़ाज़त हमने माली और भवरों दोनों को करते देखा है,
दोनों के जहन में अलग अलग मोहब्बत को महसूस करते हमने देखा है,
माली जहां जल्द से जल्द उस गुलाब को खुद से अलग करने की फिराक में रहता है,
वही भवरा खुद को गुलाब के भीतर समाने की ज़िद्द लिए बैठा है ,
मोहब्बत दोनों की देख - गुलाब भी खुद से यही पूछे की किसकी मोहब्बत पे विश्वास करुं ,
मेरी तरह गुलाब भी यही पूछे सवाल , की कल्पना को अपनी आकार कैसे दूं |
एक गुलाब हमे भी हुआ नसीब तो सोचा माली बनूं या भवरा ,
स्वार्थ के लिए कर दूँ खुद से जुदा या स्वार्थ के लिए समां जाऊं उसमें पूरा ,
कल्पना की तो निस्वार्थ काटें बनना ही गवारा हुआ ,
खुदी को भुला की रखवाली, तो कुछ तो गुलाब का साथ नसीब हुआ |
खुद को भुला अगर की हो किसी की सच्चे दिल से हिफाज़त ,
तो भले हो वो कांटा पर गुलाब के संग रहने की मिलती उसी को है इज़्ज़ाज़त ,
गुलाब के दिल की बात अक्सर काटें ही समझा करते हैं ,
गुलाब दिल-ऐ-बयान करने के लिए किसी माली या भौरों को नहीं बुलाता |
काटों के आकार की कल्पना किसी ने कल्पना में भी ना की होगी,
काटों की चुभन की मिठास को समझने की गुफ़तगू किसी ने ना की होगी,
कल्पना तो है की समझूं काटों के निस्वार्थ आकार को,
पर सवाल तो आज भी वही है , की कल्पना को अपनी आकार कैसे दूं |
कुछ मुसाफिरों को किनारा, तो कुछ को अंजानो से मिला जाती हैं ,
पर सफ़र के इस दौर में दिखा हर वो चेहरा, क्या याद रह जाता है ,
कइयों को अपना और कइयों के अपने तो हम बन जाते हैं ,
पर कोई एक चेहरा जो अपनेपन की दिला दे याद,
वो क्या हर मुसाफिर के मुकाम में आता है ?
उसका दीदार हो जाये बस इसी बात की कल्पना किया करते थे ,
आज ये आलम है की कल्पनाओ में भी उसका दीदार ही किया करते हैं ,
जो देख लूं उसे हो जायेंगे मेरे नैन तृप्त , इस बात पे विश्वास कैसे करुं ,
सवाल तो वही है आज तलाक जहाँ में, की कल्पना को अपनी आकार कैसे दूं |
ग़ौरतलब फरमाए ज़माना की दिल के मेल से बड़ी कोई मालकियत नहीं ,
दिल-ए -आरज़ू हो अगर पाने की निःस्वार्थ साथ , तो क़ायनात करे कोई हिमाक़त ऐसी गुंजाईश नहीं ,
कई बार पाने की परिभाषा समझते समझते हम किसी को गवां बैठते हैं ,
और कई दफा मिले हुए राही को ही तलाशते पूरी ज़िन्दगी निकाल देते हैं |
गुलाबों की हिफ़ाज़त हमने माली और भवरों दोनों को करते देखा है,
दोनों के जहन में अलग अलग मोहब्बत को महसूस करते हमने देखा है,
माली जहां जल्द से जल्द उस गुलाब को खुद से अलग करने की फिराक में रहता है,
वही भवरा खुद को गुलाब के भीतर समाने की ज़िद्द लिए बैठा है ,
मोहब्बत दोनों की देख - गुलाब भी खुद से यही पूछे की किसकी मोहब्बत पे विश्वास करुं ,
मेरी तरह गुलाब भी यही पूछे सवाल , की कल्पना को अपनी आकार कैसे दूं |
एक गुलाब हमे भी हुआ नसीब तो सोचा माली बनूं या भवरा ,
स्वार्थ के लिए कर दूँ खुद से जुदा या स्वार्थ के लिए समां जाऊं उसमें पूरा ,
कल्पना की तो निस्वार्थ काटें बनना ही गवारा हुआ ,
खुदी को भुला की रखवाली, तो कुछ तो गुलाब का साथ नसीब हुआ |
खुद को भुला अगर की हो किसी की सच्चे दिल से हिफाज़त ,
तो भले हो वो कांटा पर गुलाब के संग रहने की मिलती उसी को है इज़्ज़ाज़त ,
गुलाब के दिल की बात अक्सर काटें ही समझा करते हैं ,
गुलाब दिल-ऐ-बयान करने के लिए किसी माली या भौरों को नहीं बुलाता |
काटों के आकार की कल्पना किसी ने कल्पना में भी ना की होगी,
काटों की चुभन की मिठास को समझने की गुफ़तगू किसी ने ना की होगी,
कल्पना तो है की समझूं काटों के निस्वार्थ आकार को,
पर सवाल तो आज भी वही है , की कल्पना को अपनी आकार कैसे दूं |